कहानी संग्रह >> एक और एक ग्यारह एक और एक ग्यारहसुषमा प्रियदर्शिनी
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सुषमा प्रियदर्शिनी की 24 मार्मिक कहानियों का संकलन
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
आज के भागमभाग के दौर में जीवन असहज होकर रह गया है। पग पग पर उपस्थित
स्वार्थ-लिप्सा जीवन के मूल्यों को खंडित करने पर तुली हुई है। आपसी
भाईचारे, आपसी प्यार, खून के रिश्ते लांछित होने के लिए अभिशप्त हैं।
शक-शुब्हा, कटुता और खुदगर्जी का बाजार गर्म है। रिश्तों के टूटन से उपजी व्यथा जीवन में व्यापने से मुर्दनी चेहरे, निस्तेज आंखें, डगमगाते कदम आज के जीवन के पर्याय होते दिख रहे हैं। इन्हीं स्थितियों से उपजी कहानियों का संग्रह है-एक और एक ग्यारह !
एक और एक ग्यारह सुषमा प्रियदर्शिनी की 24 मार्मिक कहानियों का संग्रह है। इन कहानियों में सुषमा प्रियदर्शिनी ने अपनी तीव्र अनुभूतियों के माध्यम से मनुष्य जीवन के विविध आयामों को मार्मिक स्पर्श दिया है। इस स्पर्श में जहां कुंठा, निराशा, व्यथा का मार्मिक चित्रण है, वहीं जीवन के प्रति ललक, आदर्श जीवन जीने की प्रेरणा भी है।
शक-शुब्हा, कटुता और खुदगर्जी का बाजार गर्म है। रिश्तों के टूटन से उपजी व्यथा जीवन में व्यापने से मुर्दनी चेहरे, निस्तेज आंखें, डगमगाते कदम आज के जीवन के पर्याय होते दिख रहे हैं। इन्हीं स्थितियों से उपजी कहानियों का संग्रह है-एक और एक ग्यारह !
एक और एक ग्यारह सुषमा प्रियदर्शिनी की 24 मार्मिक कहानियों का संग्रह है। इन कहानियों में सुषमा प्रियदर्शिनी ने अपनी तीव्र अनुभूतियों के माध्यम से मनुष्य जीवन के विविध आयामों को मार्मिक स्पर्श दिया है। इस स्पर्श में जहां कुंठा, निराशा, व्यथा का मार्मिक चित्रण है, वहीं जीवन के प्रति ललक, आदर्श जीवन जीने की प्रेरणा भी है।
अपनी बात
बचपन से ही मुझे कहानी सुनने का बड़ा शौक़ था। मेरी अम्मा (दादी जी-स्व.
नगेन्द्र की मां) कहानी का न चुकने वाला ख़ज़ाना थीं। कितनी लोककथाएं,
परियों, राक्षसों, जादूगरों, पौराणिक रामायण, महाभारत की कहानियां
उन्होंने सुनायीं। भाषा पर उनका प्रबल अधिकार था। अतः कहानियां केवल
सुनाती नहीं थीं, उनकी घटनाएं, पात्र भावनाएं, संपूर्ण वातावरण उनके
उतार-चढ़ाव भरे ढंग से कहने से शब्दचित्रों-ध्वनिचित्रों में उतर आते थे।
चलचित्र का सा मज़ा आता था। पिता जी ने मुझे हमेशा से ही बड़ा समझा, मैं
भी बच्चा ही हूं, उन्हें कभी लगा ही नहीं। जब भी बाहर से आते मेरे लिए
कहानियों की पुस्तकें लाते और मेरी छोटी बहन के लिए खिलौने। मेरे लिए वे
खिलौने कभी नहीं लाये-छोटी बहन के खिलौनों को हसरत भरी नज़र से देख, कभी
कभी उसके साथ खेल कहानियों में खो जाती-सारी दीन-दुनिया भूल कर। जैसे जैसे
बड़ी होती गयी, कहानियां पढ़ने की रुचि बढ़ती ही चली गयी। हमारा घर
पुस्तकों का भण्डार था। हर रोज़ और अधिक पुस्तकें चली आती थीं। इतनी सारी
पुस्तकें पढ़ने का मौक़ा बिरलों को ही मिलता है। मैं सचमुच बहुत
सौभाग्यशाली थी। मेरा बचपन कवियों से घिरा था अतः कविताएं और गद्यगीत ख़ूब
लिखे, शायद आठ साल की आयु में पहली कविता लिखी थी। इस सबके बीच कहानी भी
अड़ कर खड़ी हो जाती थीं और चाहे-अनचाहे उन्हें भी लिखना पड़ता था। शायद
चौदह-पंद्रह साल की उम्र में मैंने पहली कहानी लिखी थी-कॉलेज की मैग़जीन
में उसे छपवाया भी था-काफ़ी लोकप्रिय रही थी-कविता और गीतों की तरह ही।
अध्ययन और अध्यापन के समय कहानी का सैद्धांतिक रूप जाना, परखा। समीक्षाएं पढ़ीं और लिखीं, समझीं और समझायीं। कहानी का इतिहास भी पढ़ा और पढ़ाया भी। पुरानी (तथाकथित) कहानी से नयी कहानी का विकास और परिवर्तन देखा। आज की कहानी में जीवन के अनंत विस्तार के साथ साथ मन की अगाध गहराइयों की संभावनाएं भी हैं। कहानी के परंपरागत मूल्य-तत्त्व आज अप्रासंगिक हो गये हैं, कहानी खांचों में, तत्त्वों में, सीमाओं में बंध नहीं पाती। पर आज की कहानी में कुछ खटकता है-वह यह कि उसमें सब कुछ है कहानी के सिवाय-कहानी तत्त्व खो सा गया है आज के घुमावदार दौर में। इसीलिए यह जनता की लोकप्रिय विधा मात्र बुद्धिजीवियों के लिए लिखी जा रही है, उन्हीं के बीच सीमित हो कर रह गयी है। आज प्रेमचंद नहीं है, जो साहित्यिक कहानी को जनजीवन तक ले आये थे। वह कहानी जो जनता के मनोरंजन, शिक्षा तथा मन की बातें, जीवन की गुत्थियों को समझने-सुलझाने की रचना हुआ करती थी, आज बुद्धिक्रीड़ा कलाडंबर बन कर रह गयी है। आम जनता की कहानी साहित्यिक नहीं रही-साहित्यिक कहानी जनता समझ नहीं पाती। यह बहुत बड़ी विडंबना है आज की कहानी की।
मैं नहीं जानती जो मैंने लिखा है, वह कहानी है या नहीं। अपने भीतर जो महसूस किया, आसपास से जो गुज़रता रहा, वही लिख डाला। आपके मन तक पहुंच पाये, संप्रेषित हो पाये तो आपके लिए-नहीं तो स्वांतः –सुखाय !
नयी दिल्ली
अध्ययन और अध्यापन के समय कहानी का सैद्धांतिक रूप जाना, परखा। समीक्षाएं पढ़ीं और लिखीं, समझीं और समझायीं। कहानी का इतिहास भी पढ़ा और पढ़ाया भी। पुरानी (तथाकथित) कहानी से नयी कहानी का विकास और परिवर्तन देखा। आज की कहानी में जीवन के अनंत विस्तार के साथ साथ मन की अगाध गहराइयों की संभावनाएं भी हैं। कहानी के परंपरागत मूल्य-तत्त्व आज अप्रासंगिक हो गये हैं, कहानी खांचों में, तत्त्वों में, सीमाओं में बंध नहीं पाती। पर आज की कहानी में कुछ खटकता है-वह यह कि उसमें सब कुछ है कहानी के सिवाय-कहानी तत्त्व खो सा गया है आज के घुमावदार दौर में। इसीलिए यह जनता की लोकप्रिय विधा मात्र बुद्धिजीवियों के लिए लिखी जा रही है, उन्हीं के बीच सीमित हो कर रह गयी है। आज प्रेमचंद नहीं है, जो साहित्यिक कहानी को जनजीवन तक ले आये थे। वह कहानी जो जनता के मनोरंजन, शिक्षा तथा मन की बातें, जीवन की गुत्थियों को समझने-सुलझाने की रचना हुआ करती थी, आज बुद्धिक्रीड़ा कलाडंबर बन कर रह गयी है। आम जनता की कहानी साहित्यिक नहीं रही-साहित्यिक कहानी जनता समझ नहीं पाती। यह बहुत बड़ी विडंबना है आज की कहानी की।
मैं नहीं जानती जो मैंने लिखा है, वह कहानी है या नहीं। अपने भीतर जो महसूस किया, आसपास से जो गुज़रता रहा, वही लिख डाला। आपके मन तक पहुंच पाये, संप्रेषित हो पाये तो आपके लिए-नहीं तो स्वांतः –सुखाय !
नयी दिल्ली
सुषमा प्रियदर्शिनी
देहांत
बड़ा अजीब सा अनुभव है, देह से अलग होने का, पूरी तरह मुक्त, आकाश में
तैरने का भाव, त्रिशंकु की याद आती है बार-बार।
दो का घंटा सुनने का आभास हुआ था। डॉक्टर ने कहा, ‘‘कोई फ़ायदा नहीं, अब ये नहीं रहे, हार्ट फेल हो चुका है-सपोर्ट सिस्मट निकाल दो।’’
देह में चुभते और बांधते बंधन हट चुके थे। देह आराम से थी-निर्विकार, निस्पंद। पांच महीने से सेवा करता राजू बिलख रहा था-आंसू से पूरा भीगा था उसका चेहरा। अजीब सा संबंध था मेरा और उसका। पता नहीं वह रो रहा था अपनी जाती नौकरी के कारण या पांच महीने के दिन-रात के साथ के कारण। वही तो था जो उसकी सेवा करता था-हर वक़्त खिलाता, पिलाता, करवट दिलाता, कपड़े बदलता, मैला भी साफ़ कर देता था। मुंह को बार बार पोंछता रहा था। हाथ पकड़ लेता था, जब बेचैन हो कर नली निकालने की कोशिश करता था। उसकी आवाज़ और स्पर्श ही मुझे मेरे होने का अहसास दिलाते थे-लगता था, मैं जीवित हूं अब भी, मरा नहीं हूं। आज उसका स्पर्श मैं महसूस नहीं कर रहा हूं, क्योंकि मैं मर गया हूं-विश्वास हो गया अपने मरने का। मरने और जीने के बीच विश्वास-अविश्वास गड्डमड्ड होते रहते थे।
देह छोड़ने पर भी-देह के शेषांश अनुभव मुझसे जुड़े थे-पूरी तरह छूटे नहीं थे। मुझे याद आ रहा है कि अस्पताल के हलचल भरे और शांत वातावरण में दो-तीन घंटे बड़ी गहमागहमी रहती थी। शायद शाम को मिलने का समय रहता होगा। लोगों के आने-जाने की आवाज़ें, कभी फुसफुसाहटें, कभी ज़ोर ज़ोर की आवाज़, कभी पहचानी, कभी अनजानी आवाज़ें। कभी हंसी-ठट्ठे, कभी दार्शनिक बातें, कभी दुनियादारी की बातें, कभी इधर-उधर की बातें। कभी अच्छी लगती थी, कभी बड़ी उलझन होती थी। इच्छा होती थी, सब चुप हो जाएं और अकेला छोड़ दें मुझे। पर इतनी शक्ति नहीं थी कि कुछ बोल पाता। बार बार मुझसे घर के लोग आंख खोलने को कहते, मैं मैकेनिकली आंखें खोल देता-पहचाने चेहरे, अपनों के चेहरे देख कर अच्छा लगता, अनेक भाव उमड़ते-घुमड़ते, भरती हुई आंखें बंद कर लेता था। आंख खुलते ही अर्ध-चेतन मन मोह के पाशों से कस जाता था। वह कसाव बड़ा दमघोंटू था, कितना छटपटाता था मैं ! ये सब जो मेरे हैं, मेरे अपने अंश हैं, छूट जाएंगे, मैं इन्हें देख नहीं पाऊंगा-जान नहीं पाऊंगा। फिर गहरी अंधेरी गुफ़ा में, टनेल में डूब जाता था।
मरते समय मैं बिलकुल अकेला था-भरे-पूरे परिवार के बावजूद। बेटा-बेटी, बहू-दामाद, पोते-पोतियां। पत्नी भी थी, उसका होना न होना क्या-असमर्थ, असहाय। बस थी, तो थी। ग़ैर कमरे में, ग़ैर वातावरण में, ग़ैरों के बीच, अकेली मृत्यु झेली-भोगी मैंने। काश, कोई अपना स्पर्श होता ! कोई अपनी आवाज़ होती ! कोई अपना साथ होता ! पर भाग्य बलवान है, जो होना होता है, वही होता है। पूर्वदीप्ति कौंधी, बीस-पच्चीस साल पहले बापू की मौत से एक दिन पहले मैं गांव गया था। रिश्तेदारों के ख़त पर ख़त आ रहे थे कि उनकी तबियत बिगड़ती जा रही है। मैंने बार बार उन्हें लिखा-रिश्तेदारों पर ज़ोर डाला कि वे उन्हें दिल्ली आने को मना लें, पर वे माने नहीं। हार झक मार के मैं गांव पहुंचा, देख कर शब्द नहीं फूटे, बस देखता रहा, यह कंकाल मेरा बापू है ? यह जी कैसे पा रहा है ? इसी ऊहोपाह में था, कक्का ने आवाज़ लगायी ‘बाबा जी, लल्ला आ गये।’ उन्होंने आंखे खोलीं, देखते रहे देर तक, भीगी भीगी आंखों से और मुझसे बोले, ‘अच्छा किया, आ गया। लग रहा था, तुझसे मिल नहीं पाऊंगा, बिना देखे ही चला जाऊंगा।’
मैंने खाट पर बैठ कस कर उनके हाथ पकड़ लिये-बोले फिर भी नहीं सका। थोड़ी देर में वे सो गये। मैं हाथ छोड़ कर खड़ा हुआ, सभी से बातें कीं, प्लान बनाया दिल्ली जाने का। एम्बुलेंस दिल्ली से ला कर उन्हें ले जाने के लिए दूसरे दिन तय किया। मेरे जाने के वक़्त वे बहुत बेचैन थे, बार बार कहा, ‘लल्ला, एक दिन रुक जा, कल चले जाना, जी अभी भरा नहीं है।’
पर मैंने आश्वासन दिया कि कल दोपहर तक आ कर उन्हें लिवा ले जाऊंगा। उनकी हताश आंखें दूर तक मेरा पीछा करती रहीं, मैं भी बेचैन हो उठा। पर प्लान तो पूरा करना ही था-यहां इलाज संभव नहीं, बड़ी जल्दी में चला आया। दूसरे दिन सभी प्रबंध लगभग पूरे हो चुके थे, जाने की तैयारी पूरी की, तभी फ़ोन आया कि बापू चल बसे, चच्चा रात भर उनके पास बैठे रहे, सुबह बेहोशी में ही या नींद में ही वे चले गये। कितने अकेले होंगे वे, कितने बेचैन, व्याकुल, पीड़ित, दर्द से कराहे होंगे कि अपना कोई नहीं था उनके पास। पर अपना घर तो था, वह घर जहां वे जन्मे थे, हमेशा रहे थे। मुझे तो वह भी नसीब नहीं हुआ।
मेरे शरीर को साफ़ कर के ट्राली पर डाल दिया गया, राजू ने उसे पकड़ लिया। पूछा, ‘‘भैया, यह क्या कर रहे हो, कहां ले जा रहे हो ?’’
अटेंडेंट ने कहा, ‘‘कलियुग है भैया, इनके बेटे का फ़ोन आया है, उन्हें आने में देर लगेगी-डॉक्टर से डैथ सर्टीफाई करा मुर्दाघर में रख दो। अस्पताल में कमरों की कमी है, वी.आई.पी. कमरा था, दूसरा मरीज तैयार बैठा है यहां के लिए। कमरा साफ़ करना है, तैयारी करनी है उसके लिए, मंत्री का भाई है।’’
और ले चला मुझे ट्राली पर डाल कर। राजू उसके साथ दौड़ता सा चलता रहा। कॉरीडोर से इधर-उधर निकल, ठंडे अंधेरे कमरे में, एक ठंडे बक्से में बंद हो गया मेरा शरीर। ये क्या ? मुर्दों की आंखें भीगती हैं क्या ?
मैं पहले तो हक्का-बक्का था, समझ में ही नहीं आया कि हो क्या रहा है यह सब ! सोचा था, परिवार के लोग आएंगे, रोते रोते, आंसू बहाते, सिसकते-तड़पते, पर कोई नहीं आया। न मेरा दर्शन किया किसी ने, न पांव ही छुए। रीत-रस्म मैंने ही कब मानी थी, जो ये क्या निभाते। मैंने अपेक्षा ही क्यों की ?
पता नहीं कितना समय बीता, काल-सीमा से दूर हो चुका हूं, पर देह के अनुभवों से नहीं। बेटा आया। बड़ा अफ़सर है, टेलीफ़ोन कर के पूरा झुंड सरकारी अफ़सरों का ले कर आया। दाह-संस्कार का पूरा प्रबंध अलग अलग लोगों में बांट दिया। टेलीविज़न, रेडियो, अख़बारों में समाचार देने का काम पहले हो गया। तभी बेटी-दामाद आये। बेटी के आंसू बार बार टपक रहे थे। बहू भी आ चुकी थी, उसके कंधे को थपथपाती रही, सूखी आंखों से। दामाद विचलित और दुखी लग रहे थे, आंखें भीगी थीं। पोता आया, बोला, ‘‘पापा, आपके पी.ए. को निगम बोध घाट भेज दिया है, पूरा इंतज़ाम कर लेगा।’’
चेहरा सामान्य था-दुख पीड़ा के भाव से हीन। ऐसा लग रहा था, जैसे कोई सरकारी समारोह हो, जिसका आयोजन मेरा बेटा कर रहा है मुस्तैदी से। बहू भी निर्विकार थी। तभी मेरा दौहित्र आया। मेरा पहला ‘ग्रैंड-चाइल्ड’, मेरी आंखों का तारा। उसका चेहरा निस्तेज था, आंखें दर्द से भीगी और लाल थीं, कपड़े अस्त-व्यस्त। उसकी बहू भी साथ थी, बेचैन सी, बिखरी हुई सी। चुपचाप मेरी बेटी के पास खड़ी हो गयी, बेटी को कंधे से लगा लिया। बेटी ने दर्शन करने चाहे, पर कहा गया, स्त्रियां शव को नहीं छूतीं-बेटी तो बिलकुल भी नहीं। बहू की मां आ गयी थी, सारी रीति-रस्म की ज़िम्मेदारी उसी को सौंपी थी, बहू ने। उसे कुछ पता नहीं था, बेटी आर्यसमाजी थी, रीति-रिवाज क्या जाने ! सब स्त्रियों को एक साथ कार में घर भेज दिया गया। फ़जीता बचाने के लिए मेरी प्रचंड तेजस्विनी बेटी चुपचाप गाय सी चल दी उनके साथ। उसका दर्द मुझे मथ गया।
टिकटी पर जब रखने की बात आयी, तो दामाद ने कहा, ‘‘पिता जी को एक बार घर ले जाना चाहिए, स्नानादि कराना होगा। पारिवारिक पंडित को बुलाना चाहिए। माताजी का अंतिम दर्शन का अधिकार हम कैसे छीन सकते हैं ?’’
बेटे ने कहा, ‘‘माता जी को बड़ा धक्का लगेगा, फिर वे इतनी बात समझती भी कहां हैं। घर में और बैठा ही कौन है, सब यहीं हैं। बेकार है घर ले जाना।’’
अधिकार भरे शब्दों में निर्णय स्पष्ट था।
मैं कितना छटपटा रहा था घर जाने के लिए-अपने घर, जिसके हर कोने में कितनी यादें थीं, अपनी पत्नी के लिए मेरा दिल उमड़ता रहा, बड़ी हतभागिनी है बेचारी। जीवन भर मैंने ही कद्र नहीं की-ये क्या करेंगे ! मेरे बाद पता नहीं उसका क्या होगा ! देह के सूत्र अभी भी मेरी आत्मा को ईर्द-गिर्द घेरे थे-टूट ही नहीं रहे थे।
मुर्दागाड़ी में मेरे साथ दौहित्र और दामाद बैठे, बेटा अपने सहयोगियों के साथ दूसरी गाड़ी में था। समय से पहले ही सब कुछ प्रबंध हो गया तो बेटे ने कहा, ‘‘दाह-संस्कार भी संपन्न कर देते हैं। अब इसमें क्या रखा है !’’
रिश्तेदारों में से एक ने धीमे से कहा, ‘‘लोगों को जो समय दे रखा है, उतना तो रुकना ही होगा।’’
बेटे ने कहा, ‘‘क्या ज़रूरत है। सप्ताह के बीच का दिन है, कौन आएगा और ?’’
लकड़ियां कम-से-कम ख़रीदी गयीं। हवन सामग्री, घी का प्रबंध भी नहीं था। चंदन की लकड़ियां भी वहां नहीं मिलती थीं। रिश्तेदारों ने बार बार समझाया, एकाध घंटा रुक कर इन सबका प्रबंध कर लिया जाये तब तक निर्धारित समय भी हो जाएगा। जिन्हें आना है आ जाएंगे, पर बड़े सरकारी अफ़सर, फिर बेटा होने के कारण उसी का निर्णय माना गया।
मेरे निधन के दुखद समाचार की जिसे भी सूचना मिली, भागता चला आया निगम बोध घाट-विद्यार्थी, शिष्य, सहयोगी, मित्र, प्रशंसक, लेखक वर्ग, पड़ोसी, हितैषी, रिश्तेदार। सभी सोच रहे थे, अस्पताल से निकलने में बड़ी देर लग जाती है, समय पर कभी दाह संस्कार हुआ है, अतः निगम बोध घाट के बाहर तीन सौ, चार सौ लोग इकट्ठे हो कर बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगे। कुछ लोग आत्मीयता के कारण विगलित थे, बार बार आंखें भर आती थीं, चुपचाप खड़े थे। कुछ प्रशंसा कर रहे थे, संस्मरण सुना रहे थे। कुछ बढ़-चढ़ कर दिखाने का प्रयत्न कर रहे थे-वे कितने आत्मीय थे मेरे-बिलकुल निजी अंतरंग। जो विरोधी थे, देहांत के साथ सैद्धांतिक विरोध मिट गया था, दुःखी थे, साहित्य की क्षति के कारण। तभी भीतर से एक व्यक्ति जाने के लिए आया तो एक परिचित को बताया कि जिसकी बाहर प्रतीक्षा हो रही है, उसका तो आधा घंटा पहले ही दाह संस्कार हो चुका, अब तो चिता पूरी तेज़ी पर है। बाहर एकदम हड़बड़ी मची, भीतर की ओर दौड़े। जिसके दर्शन की प्रतीक्षा में वे आये थे, उसके अंतिम दर्शन नहीं हुए, उनके फूलमालाएं आदि सब चिता पर चढ़ाये गये। कुछ दुःख से पीड़ित हो कर रो रो कर लड़ने लगे बेटे से। ऐसी भी जल्दी क्या थी, महापुरुष के दर्शन से उन्हें वंचित कर उन्होंने अक्षम्य अपराध किया है, उनके प्रशंसकों, शिष्यों, मित्रों आदि का अपमान किया है। महापुरुष तो सबके साझी होते हैं, बेटा मात्र होने से निरंकुश व्यवहार कैसे किया। कुछ गंभीर शांत लोगों ने भीड़ को परिस्थिति की गरिमा और औचित्य का ध्यान दिला कर शांत किया। विक्षोभ, विद्रोह, भर्त्सना, ग्लानि, विवशता असहायता का मिश्रित भाव लिये भीड़ लौट गयी। मेरी शवयात्रा मेरे परिवार, कुछ रिश्तेदार, बाक़ी सरकारी अफ़सरों की शायद सबसे छोटी शवयात्रा रही होगी।
मैंने अट्टहास किया, भाग्य की विडंबना, नियति की विषमता पर, लोगों ने उसे सुना ही नहीं होगा। मैंने भरी पूरी ज़िंदगी जी थी, अपनी शर्तों पर, अपने सिद्धांतों पर, अपनी इच्छानुसार। कर्मठता को धर्म मान जीवन को साहित्य साधना में अर्पित किया, कितने बलिदान दिये, परिवार का सबसे अधिक। मेरी सारी महत्त्वाकांक्षाएं पूरी हुईं, सफलता की अंतिम सीढ़ी पर पहुंचा, कितना मान-सम्मान, कितने पुरस्कार, लोगों से घिरा रहा हमेशा, सामंतीय परिवार के संस्कार के कारण मेरी वृत्ति दरबारी थी। अकेलापन केवल साहित्य सृजन के समय चाहता था, वह समय मेरे लिए निश्चित था, उसे कोई लांघ नहीं सकता था। इसके अतिरिक्त लोगों से घिरा रहता था-कुछ आत्मीय थे, अपने थे, बाक़ी स्वार्थ और महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए मेरे चरणों में बिछ जाते थे। एक दर्शन, एक दृष्टि, एक कृपा से कृतार्थ हो जाते थे। क्या समय था मेरे जीवन का वह-भरा-पूरा संतुष्ट, कृतार्थ !
वक़्त ठहरता नहीं है, हर चीज़ का अंत होता है, मेरा समय भी बदला। जो मेरे इर्द-गिर्द मंडराते थे, कतराने लगे, कन्नी काटने लगे। जो मेरे घर घंटों प्रतीक्षा करते थे मुझसे मिलने की, जब उनके घर मैं जाता था तो मिलना नहीं चाहते थे, उपेक्षा का भाव उनके चेहरे पर साफ़ होता था। कितना अकेला था, मैं बाहर से अशक्त, भीतर से असहाय। वक़्त काटना मुश्किल होता गया, इधर-उधर भटकने लगा, कर्मशक्ति भी समाप्तप्राय थी। जिजीविषा पूरी थी, मरने से डर लगता था। जो इतना विवेकशील पंडित विद्वान, उसे अवश्यंभावी मृत्यु से भय ? विरोधाभास था पर यही सच था। देह का अंत अनिवार्य है सो हो गया।
मेरी परिकल्पना, मेरा सपना कि मेरी शवयात्रा में हज़ारों की भीड़ उमड़ेगी फूलमालाओं के लिए स्थान भी नहीं होगा, दर्शनों के लिए घंटों लोग पंक्ति में खड़े रहेंगे विगलित, विचलित, बेचैन। बड़े बड़े मंत्री, नेता, साहित्य के दिग्गज आएंगे। समाचारपत्रों में मेरी चर्चा होती रहेगी, रेडियो पर विस्तार से समाचार आएगा। टी.वी. पर मेरे बारे में बहुत दिनों तक श्रद्धांजलियां आएंगी। सपना ही रहा। नियति का पलटना इसी को कहते हैं। एक भीतर से उमड़ती हूक। बस, यहीं तक था संबंध मेरा शरीर से, अपनों और परायों से, जीवन से। सारे पाश टूट चुके हैं, मैं पूर्णतः मुक्त हूं, आत्म हो कर संपूर्ण आकाश में छाता चला जा रहा हूं:
विदा-मेरे जीवन !
दो का घंटा सुनने का आभास हुआ था। डॉक्टर ने कहा, ‘‘कोई फ़ायदा नहीं, अब ये नहीं रहे, हार्ट फेल हो चुका है-सपोर्ट सिस्मट निकाल दो।’’
देह में चुभते और बांधते बंधन हट चुके थे। देह आराम से थी-निर्विकार, निस्पंद। पांच महीने से सेवा करता राजू बिलख रहा था-आंसू से पूरा भीगा था उसका चेहरा। अजीब सा संबंध था मेरा और उसका। पता नहीं वह रो रहा था अपनी जाती नौकरी के कारण या पांच महीने के दिन-रात के साथ के कारण। वही तो था जो उसकी सेवा करता था-हर वक़्त खिलाता, पिलाता, करवट दिलाता, कपड़े बदलता, मैला भी साफ़ कर देता था। मुंह को बार बार पोंछता रहा था। हाथ पकड़ लेता था, जब बेचैन हो कर नली निकालने की कोशिश करता था। उसकी आवाज़ और स्पर्श ही मुझे मेरे होने का अहसास दिलाते थे-लगता था, मैं जीवित हूं अब भी, मरा नहीं हूं। आज उसका स्पर्श मैं महसूस नहीं कर रहा हूं, क्योंकि मैं मर गया हूं-विश्वास हो गया अपने मरने का। मरने और जीने के बीच विश्वास-अविश्वास गड्डमड्ड होते रहते थे।
देह छोड़ने पर भी-देह के शेषांश अनुभव मुझसे जुड़े थे-पूरी तरह छूटे नहीं थे। मुझे याद आ रहा है कि अस्पताल के हलचल भरे और शांत वातावरण में दो-तीन घंटे बड़ी गहमागहमी रहती थी। शायद शाम को मिलने का समय रहता होगा। लोगों के आने-जाने की आवाज़ें, कभी फुसफुसाहटें, कभी ज़ोर ज़ोर की आवाज़, कभी पहचानी, कभी अनजानी आवाज़ें। कभी हंसी-ठट्ठे, कभी दार्शनिक बातें, कभी दुनियादारी की बातें, कभी इधर-उधर की बातें। कभी अच्छी लगती थी, कभी बड़ी उलझन होती थी। इच्छा होती थी, सब चुप हो जाएं और अकेला छोड़ दें मुझे। पर इतनी शक्ति नहीं थी कि कुछ बोल पाता। बार बार मुझसे घर के लोग आंख खोलने को कहते, मैं मैकेनिकली आंखें खोल देता-पहचाने चेहरे, अपनों के चेहरे देख कर अच्छा लगता, अनेक भाव उमड़ते-घुमड़ते, भरती हुई आंखें बंद कर लेता था। आंख खुलते ही अर्ध-चेतन मन मोह के पाशों से कस जाता था। वह कसाव बड़ा दमघोंटू था, कितना छटपटाता था मैं ! ये सब जो मेरे हैं, मेरे अपने अंश हैं, छूट जाएंगे, मैं इन्हें देख नहीं पाऊंगा-जान नहीं पाऊंगा। फिर गहरी अंधेरी गुफ़ा में, टनेल में डूब जाता था।
मरते समय मैं बिलकुल अकेला था-भरे-पूरे परिवार के बावजूद। बेटा-बेटी, बहू-दामाद, पोते-पोतियां। पत्नी भी थी, उसका होना न होना क्या-असमर्थ, असहाय। बस थी, तो थी। ग़ैर कमरे में, ग़ैर वातावरण में, ग़ैरों के बीच, अकेली मृत्यु झेली-भोगी मैंने। काश, कोई अपना स्पर्श होता ! कोई अपनी आवाज़ होती ! कोई अपना साथ होता ! पर भाग्य बलवान है, जो होना होता है, वही होता है। पूर्वदीप्ति कौंधी, बीस-पच्चीस साल पहले बापू की मौत से एक दिन पहले मैं गांव गया था। रिश्तेदारों के ख़त पर ख़त आ रहे थे कि उनकी तबियत बिगड़ती जा रही है। मैंने बार बार उन्हें लिखा-रिश्तेदारों पर ज़ोर डाला कि वे उन्हें दिल्ली आने को मना लें, पर वे माने नहीं। हार झक मार के मैं गांव पहुंचा, देख कर शब्द नहीं फूटे, बस देखता रहा, यह कंकाल मेरा बापू है ? यह जी कैसे पा रहा है ? इसी ऊहोपाह में था, कक्का ने आवाज़ लगायी ‘बाबा जी, लल्ला आ गये।’ उन्होंने आंखे खोलीं, देखते रहे देर तक, भीगी भीगी आंखों से और मुझसे बोले, ‘अच्छा किया, आ गया। लग रहा था, तुझसे मिल नहीं पाऊंगा, बिना देखे ही चला जाऊंगा।’
मैंने खाट पर बैठ कस कर उनके हाथ पकड़ लिये-बोले फिर भी नहीं सका। थोड़ी देर में वे सो गये। मैं हाथ छोड़ कर खड़ा हुआ, सभी से बातें कीं, प्लान बनाया दिल्ली जाने का। एम्बुलेंस दिल्ली से ला कर उन्हें ले जाने के लिए दूसरे दिन तय किया। मेरे जाने के वक़्त वे बहुत बेचैन थे, बार बार कहा, ‘लल्ला, एक दिन रुक जा, कल चले जाना, जी अभी भरा नहीं है।’
पर मैंने आश्वासन दिया कि कल दोपहर तक आ कर उन्हें लिवा ले जाऊंगा। उनकी हताश आंखें दूर तक मेरा पीछा करती रहीं, मैं भी बेचैन हो उठा। पर प्लान तो पूरा करना ही था-यहां इलाज संभव नहीं, बड़ी जल्दी में चला आया। दूसरे दिन सभी प्रबंध लगभग पूरे हो चुके थे, जाने की तैयारी पूरी की, तभी फ़ोन आया कि बापू चल बसे, चच्चा रात भर उनके पास बैठे रहे, सुबह बेहोशी में ही या नींद में ही वे चले गये। कितने अकेले होंगे वे, कितने बेचैन, व्याकुल, पीड़ित, दर्द से कराहे होंगे कि अपना कोई नहीं था उनके पास। पर अपना घर तो था, वह घर जहां वे जन्मे थे, हमेशा रहे थे। मुझे तो वह भी नसीब नहीं हुआ।
मेरे शरीर को साफ़ कर के ट्राली पर डाल दिया गया, राजू ने उसे पकड़ लिया। पूछा, ‘‘भैया, यह क्या कर रहे हो, कहां ले जा रहे हो ?’’
अटेंडेंट ने कहा, ‘‘कलियुग है भैया, इनके बेटे का फ़ोन आया है, उन्हें आने में देर लगेगी-डॉक्टर से डैथ सर्टीफाई करा मुर्दाघर में रख दो। अस्पताल में कमरों की कमी है, वी.आई.पी. कमरा था, दूसरा मरीज तैयार बैठा है यहां के लिए। कमरा साफ़ करना है, तैयारी करनी है उसके लिए, मंत्री का भाई है।’’
और ले चला मुझे ट्राली पर डाल कर। राजू उसके साथ दौड़ता सा चलता रहा। कॉरीडोर से इधर-उधर निकल, ठंडे अंधेरे कमरे में, एक ठंडे बक्से में बंद हो गया मेरा शरीर। ये क्या ? मुर्दों की आंखें भीगती हैं क्या ?
मैं पहले तो हक्का-बक्का था, समझ में ही नहीं आया कि हो क्या रहा है यह सब ! सोचा था, परिवार के लोग आएंगे, रोते रोते, आंसू बहाते, सिसकते-तड़पते, पर कोई नहीं आया। न मेरा दर्शन किया किसी ने, न पांव ही छुए। रीत-रस्म मैंने ही कब मानी थी, जो ये क्या निभाते। मैंने अपेक्षा ही क्यों की ?
पता नहीं कितना समय बीता, काल-सीमा से दूर हो चुका हूं, पर देह के अनुभवों से नहीं। बेटा आया। बड़ा अफ़सर है, टेलीफ़ोन कर के पूरा झुंड सरकारी अफ़सरों का ले कर आया। दाह-संस्कार का पूरा प्रबंध अलग अलग लोगों में बांट दिया। टेलीविज़न, रेडियो, अख़बारों में समाचार देने का काम पहले हो गया। तभी बेटी-दामाद आये। बेटी के आंसू बार बार टपक रहे थे। बहू भी आ चुकी थी, उसके कंधे को थपथपाती रही, सूखी आंखों से। दामाद विचलित और दुखी लग रहे थे, आंखें भीगी थीं। पोता आया, बोला, ‘‘पापा, आपके पी.ए. को निगम बोध घाट भेज दिया है, पूरा इंतज़ाम कर लेगा।’’
चेहरा सामान्य था-दुख पीड़ा के भाव से हीन। ऐसा लग रहा था, जैसे कोई सरकारी समारोह हो, जिसका आयोजन मेरा बेटा कर रहा है मुस्तैदी से। बहू भी निर्विकार थी। तभी मेरा दौहित्र आया। मेरा पहला ‘ग्रैंड-चाइल्ड’, मेरी आंखों का तारा। उसका चेहरा निस्तेज था, आंखें दर्द से भीगी और लाल थीं, कपड़े अस्त-व्यस्त। उसकी बहू भी साथ थी, बेचैन सी, बिखरी हुई सी। चुपचाप मेरी बेटी के पास खड़ी हो गयी, बेटी को कंधे से लगा लिया। बेटी ने दर्शन करने चाहे, पर कहा गया, स्त्रियां शव को नहीं छूतीं-बेटी तो बिलकुल भी नहीं। बहू की मां आ गयी थी, सारी रीति-रस्म की ज़िम्मेदारी उसी को सौंपी थी, बहू ने। उसे कुछ पता नहीं था, बेटी आर्यसमाजी थी, रीति-रिवाज क्या जाने ! सब स्त्रियों को एक साथ कार में घर भेज दिया गया। फ़जीता बचाने के लिए मेरी प्रचंड तेजस्विनी बेटी चुपचाप गाय सी चल दी उनके साथ। उसका दर्द मुझे मथ गया।
टिकटी पर जब रखने की बात आयी, तो दामाद ने कहा, ‘‘पिता जी को एक बार घर ले जाना चाहिए, स्नानादि कराना होगा। पारिवारिक पंडित को बुलाना चाहिए। माताजी का अंतिम दर्शन का अधिकार हम कैसे छीन सकते हैं ?’’
बेटे ने कहा, ‘‘माता जी को बड़ा धक्का लगेगा, फिर वे इतनी बात समझती भी कहां हैं। घर में और बैठा ही कौन है, सब यहीं हैं। बेकार है घर ले जाना।’’
अधिकार भरे शब्दों में निर्णय स्पष्ट था।
मैं कितना छटपटा रहा था घर जाने के लिए-अपने घर, जिसके हर कोने में कितनी यादें थीं, अपनी पत्नी के लिए मेरा दिल उमड़ता रहा, बड़ी हतभागिनी है बेचारी। जीवन भर मैंने ही कद्र नहीं की-ये क्या करेंगे ! मेरे बाद पता नहीं उसका क्या होगा ! देह के सूत्र अभी भी मेरी आत्मा को ईर्द-गिर्द घेरे थे-टूट ही नहीं रहे थे।
मुर्दागाड़ी में मेरे साथ दौहित्र और दामाद बैठे, बेटा अपने सहयोगियों के साथ दूसरी गाड़ी में था। समय से पहले ही सब कुछ प्रबंध हो गया तो बेटे ने कहा, ‘‘दाह-संस्कार भी संपन्न कर देते हैं। अब इसमें क्या रखा है !’’
रिश्तेदारों में से एक ने धीमे से कहा, ‘‘लोगों को जो समय दे रखा है, उतना तो रुकना ही होगा।’’
बेटे ने कहा, ‘‘क्या ज़रूरत है। सप्ताह के बीच का दिन है, कौन आएगा और ?’’
लकड़ियां कम-से-कम ख़रीदी गयीं। हवन सामग्री, घी का प्रबंध भी नहीं था। चंदन की लकड़ियां भी वहां नहीं मिलती थीं। रिश्तेदारों ने बार बार समझाया, एकाध घंटा रुक कर इन सबका प्रबंध कर लिया जाये तब तक निर्धारित समय भी हो जाएगा। जिन्हें आना है आ जाएंगे, पर बड़े सरकारी अफ़सर, फिर बेटा होने के कारण उसी का निर्णय माना गया।
मेरे निधन के दुखद समाचार की जिसे भी सूचना मिली, भागता चला आया निगम बोध घाट-विद्यार्थी, शिष्य, सहयोगी, मित्र, प्रशंसक, लेखक वर्ग, पड़ोसी, हितैषी, रिश्तेदार। सभी सोच रहे थे, अस्पताल से निकलने में बड़ी देर लग जाती है, समय पर कभी दाह संस्कार हुआ है, अतः निगम बोध घाट के बाहर तीन सौ, चार सौ लोग इकट्ठे हो कर बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगे। कुछ लोग आत्मीयता के कारण विगलित थे, बार बार आंखें भर आती थीं, चुपचाप खड़े थे। कुछ प्रशंसा कर रहे थे, संस्मरण सुना रहे थे। कुछ बढ़-चढ़ कर दिखाने का प्रयत्न कर रहे थे-वे कितने आत्मीय थे मेरे-बिलकुल निजी अंतरंग। जो विरोधी थे, देहांत के साथ सैद्धांतिक विरोध मिट गया था, दुःखी थे, साहित्य की क्षति के कारण। तभी भीतर से एक व्यक्ति जाने के लिए आया तो एक परिचित को बताया कि जिसकी बाहर प्रतीक्षा हो रही है, उसका तो आधा घंटा पहले ही दाह संस्कार हो चुका, अब तो चिता पूरी तेज़ी पर है। बाहर एकदम हड़बड़ी मची, भीतर की ओर दौड़े। जिसके दर्शन की प्रतीक्षा में वे आये थे, उसके अंतिम दर्शन नहीं हुए, उनके फूलमालाएं आदि सब चिता पर चढ़ाये गये। कुछ दुःख से पीड़ित हो कर रो रो कर लड़ने लगे बेटे से। ऐसी भी जल्दी क्या थी, महापुरुष के दर्शन से उन्हें वंचित कर उन्होंने अक्षम्य अपराध किया है, उनके प्रशंसकों, शिष्यों, मित्रों आदि का अपमान किया है। महापुरुष तो सबके साझी होते हैं, बेटा मात्र होने से निरंकुश व्यवहार कैसे किया। कुछ गंभीर शांत लोगों ने भीड़ को परिस्थिति की गरिमा और औचित्य का ध्यान दिला कर शांत किया। विक्षोभ, विद्रोह, भर्त्सना, ग्लानि, विवशता असहायता का मिश्रित भाव लिये भीड़ लौट गयी। मेरी शवयात्रा मेरे परिवार, कुछ रिश्तेदार, बाक़ी सरकारी अफ़सरों की शायद सबसे छोटी शवयात्रा रही होगी।
मैंने अट्टहास किया, भाग्य की विडंबना, नियति की विषमता पर, लोगों ने उसे सुना ही नहीं होगा। मैंने भरी पूरी ज़िंदगी जी थी, अपनी शर्तों पर, अपने सिद्धांतों पर, अपनी इच्छानुसार। कर्मठता को धर्म मान जीवन को साहित्य साधना में अर्पित किया, कितने बलिदान दिये, परिवार का सबसे अधिक। मेरी सारी महत्त्वाकांक्षाएं पूरी हुईं, सफलता की अंतिम सीढ़ी पर पहुंचा, कितना मान-सम्मान, कितने पुरस्कार, लोगों से घिरा रहा हमेशा, सामंतीय परिवार के संस्कार के कारण मेरी वृत्ति दरबारी थी। अकेलापन केवल साहित्य सृजन के समय चाहता था, वह समय मेरे लिए निश्चित था, उसे कोई लांघ नहीं सकता था। इसके अतिरिक्त लोगों से घिरा रहता था-कुछ आत्मीय थे, अपने थे, बाक़ी स्वार्थ और महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए मेरे चरणों में बिछ जाते थे। एक दर्शन, एक दृष्टि, एक कृपा से कृतार्थ हो जाते थे। क्या समय था मेरे जीवन का वह-भरा-पूरा संतुष्ट, कृतार्थ !
वक़्त ठहरता नहीं है, हर चीज़ का अंत होता है, मेरा समय भी बदला। जो मेरे इर्द-गिर्द मंडराते थे, कतराने लगे, कन्नी काटने लगे। जो मेरे घर घंटों प्रतीक्षा करते थे मुझसे मिलने की, जब उनके घर मैं जाता था तो मिलना नहीं चाहते थे, उपेक्षा का भाव उनके चेहरे पर साफ़ होता था। कितना अकेला था, मैं बाहर से अशक्त, भीतर से असहाय। वक़्त काटना मुश्किल होता गया, इधर-उधर भटकने लगा, कर्मशक्ति भी समाप्तप्राय थी। जिजीविषा पूरी थी, मरने से डर लगता था। जो इतना विवेकशील पंडित विद्वान, उसे अवश्यंभावी मृत्यु से भय ? विरोधाभास था पर यही सच था। देह का अंत अनिवार्य है सो हो गया।
मेरी परिकल्पना, मेरा सपना कि मेरी शवयात्रा में हज़ारों की भीड़ उमड़ेगी फूलमालाओं के लिए स्थान भी नहीं होगा, दर्शनों के लिए घंटों लोग पंक्ति में खड़े रहेंगे विगलित, विचलित, बेचैन। बड़े बड़े मंत्री, नेता, साहित्य के दिग्गज आएंगे। समाचारपत्रों में मेरी चर्चा होती रहेगी, रेडियो पर विस्तार से समाचार आएगा। टी.वी. पर मेरे बारे में बहुत दिनों तक श्रद्धांजलियां आएंगी। सपना ही रहा। नियति का पलटना इसी को कहते हैं। एक भीतर से उमड़ती हूक। बस, यहीं तक था संबंध मेरा शरीर से, अपनों और परायों से, जीवन से। सारे पाश टूट चुके हैं, मैं पूर्णतः मुक्त हूं, आत्म हो कर संपूर्ण आकाश में छाता चला जा रहा हूं:
विदा-मेरे जीवन !
शोरोगुल का ऑरकेस्ट्रा
शिमला के स्कैंडल पॉइंट पर बेंच पर तान्या बैठी है जय के इंतज़ार में।
हमेशा से ही वह लेट-लतीफ़ रहा है इसलिए आधा घंटा लेट ही आयी थी। सोचने लगी
कि कहीं वह इंतज़ार कर के घूम न रहा हो, इसीलिए हर आते-जाते आदमी पर उसकी
नज़र थी।
पास की बैंच के पास एक अधेड़ दंपती आ खड़ा हुआ। पति बोला, ‘‘चढ़ाई पर चढ़ने से तुम्हारे घुटनों में दर्द हो गया होगा, इसी बेंच पर बैठ जाते हैं।’’
पत्नी बोली, ‘‘हां, दर्द तो हो रहा है, चलो, सुस्ता लेते हैं, मेरी कहते हो, अपनी तरफ़ देखो, कैसी सांस फूल रही है।’’ पत्नी ने प्लास्टिक की टोकरी से दो संतरे निकाले और एक पति को और ख़ुद भी खाने लगी। वह छिलके थैली में डालती जा रही थी। देखा, पति महोदय छिलके सड़क पर फेंक रहे हैं, पत्नी गुस्से से बोली, ‘‘अरे, क्या कर रहे हो, गंदगी फैला रहे हो ? घर तुम्हारी इन्हीं हरकतों से कभी साफ़ नहीं रह पाता।’’ बुड़बुड़ाती हुई उठी, छिलके उठा कर थैली में रखे और कूड़ेदान में फेंक आयी फिर आ कर बैठ गयी।
दोनों कुछ देर चुपचाप बैठे रहे फिर उठ कर चल दिये।
तान्या को जय नहीं दिखाई दिया-घड़ी देख चुपचाप नज़ारे देखने लगी। सामने एक रोमियोनुमा लड़का खड़ा था, इधर-उधर घूम कर पीछे लगी बार पर बैठ गया। बार बार घड़ी देख रहा था, चुइंगम भरा मुंह चलाये जा रहा था।
पास की ख़ाली बेंच पर देखा, नया नया शादीशुदा सरदार-जोड़ा बैठा है। हमीमून पर आये लगते हैं। हाथों में चूड़ा, हथेलियों पर मेहंदी, लाल चमकीला सूट-चुन्नी पहने, गोरी चिट्टी, लंबी सुंदर सरदारनी थी। सरदार नया सूट-टाई लगाये था, लंबा-चौड़ा गुलाबी गोरा रंग। बड़ा ख़ूबसूरत जोड़ा था। सरदार जी बोले, ‘‘अरे, दूर क्यों बैठी है, कोल आ के बैठ, हनीमून पै आये हैं।’’
सरदारनी सरक आयी। फुसफुसाहट भरी बातें, खिलखिलाती हंसी आने लगी। ज़ोर से चूमने की आवाज़ से तान्या चौंक कर उधर देखने लगी। सरदारनी बोली, ‘‘की कर दे ओ जी, सब देख रहे हैं।’’
‘‘अरे देखन दे, मैन्यू ते तैन्नू की, यहां कौन जानदा है हमें !’’ सरदार ने फिर उसे बांहों में बांधने की कोशिश की। वह शरमा कर उठ खड़ी हुई, हार कर सरदार जी भी उठ खड़े हुए। दोनों हाथों में हाथ डाल थियेटर की ढलान पर उतरने लगे।
कुछ देर बाद दो प्रौढ़ महिलाएं वहां पर आ कर बैठ गयीं। एक बोली, ‘‘अकेले आये हो तुम दोनों ?’’
‘‘और कौन बैठा है यहां ? दोनों लड़के और लड़कियां अपने अपने घर परिवार समेत अमेरिका में जा बसे हैं। बस, हम दोनों ही रह गये हैं। आपके साथ कौन आया है ?’’
‘‘हमारे साथ तो पूरा टब्बर है। तीनों लड़के-बहुएं, दोनों बेटी-दामाद, नाती-पोते बड़ी सी कोठी है न ढलान पर, दो महीने के लिए ले ली है। नौकर-आया भी साथ लाये हैं। लड़के-दामाद आते-जाते रहते हैं और सभी साथ हैं।’’
‘‘बड़ी भाग्यवान हो, भरा-पूरा परिवार साथ है, हम तो परिवार कुटुंब हो के भी अकेले रह गये हैं।’’ भीगी सी आवाज़ आयी।
‘‘क्या कह रही हो बहन जी, मेरा परिवार भी तो आपका है, जब चाहो आ जाया करो। आज आप और भाई साहब हमारे साथ ही खाना खाओ।’’
‘‘ठीक है, अकेलेपन से अब ऊब गये हैं, डर लगता है कभी कभी तो।’’
‘‘भगवान की कृपा से सब ठीक हो जाएगा जी, देखो दोनों दोस्त साथ साथ चले आ रहे हैं। चलो, उठो साथ ही खाना खाएंगे।’’ वे भी धीमे धीमे उठ कर चल दीं।
तान्या ने फिर घड़ी देखी, केवल दस मिनट ही बीते थे। रोमियोनुमा लड़का बार-बार घड़ी देख कर बेचैन सा चहलक़दमी करने लगा था, बार बार चर्च वाले रास्ते की ओर देख रहा था। उसे कुछ लड़के दिखाई दिये और वह भागा उनकी तरफ़, ‘‘अबे सालो, ये टाइम है आने का ! आधी पिक्चर तो ख़त्म हो गयी होगी।’’
‘‘भाव मत खा, अभी एड्स हो रहे होंगे, चल भाग के चल।’’ और वे लड़ते-झगड़ते हँसी ठट्ठा मस्ती करते चल दिये भागते से।
‘‘क्या टैम हुआ है बहन जी ?’’ एक हलकी सी आवाज़ पास से आयी।
‘‘बारह बजे हैं,’’ घड़ी देख कर तान्या बोली।
‘‘अरी तू घर चली जा, छोरे का बदन तप रहा है, कल की तरह आज भी कमाई ठीक न हो रही।’’
‘‘तुम चले जाओ या के संग, रात भर खांस खांस कर हलकान रहे हो, दोउन कौ आराम मिल जाएगो।’’
‘‘और तू अकेली बैठेगी यहां ?’’
‘‘दो-तीन घंटा बाद मैं भी चली आऊंगी, सबेरे की रोटी रखी है, खा लेना।’’
‘‘और तू का खाएगी ?’’
‘‘मोय अभी भूख ना लगी, कलेवा ख़ूब डट कें कर लियो हो।’’
‘‘चल लल्ला, चलें।’’
बच्चे को गोद में लिये वह खांसता धीमे क़दम से चल दिया। वह निरीह सा भाव लिये और मूंगफली लिये बैठी रही।
‘‘मुझे मालूम था, ज़रूर देर करेगा, मैं ही पागल हूं, जो इंतज़ार कर रही हूं।’’ धीरे धीरे तान्या बड़बड़ायी।
‘‘क्या बड़बड़ा रही है पगली ?’’ जय पीछे से बोला।
तान्या चौंक कर उठ खड़ी हुई। ‘‘क्या बदमाशी है, अब बजे हैं आपके 10:30 ? अब तेरा कभी विश्वास नहीं करूँगी, श्रीति के साथ घूमा करूंगी।’’
‘‘क्या करूं, गोपू और निन्नी मिल गये, सिर खा गये दोनों। बातें ख़त्म ही नहीं हो रही थीं। पैप्सी पीते रहे और दुनिया जहान की बातें करते रहे।’’
‘‘तुम कह नहीं सकते थे कि तान्या इंतज़ार कर रही है, चलते चलते बातें करते हैं ?’’
‘‘कहा था, पर वे लोग दूसरी तरफ़ जाने वाले थे।’’
‘‘ठीक है, उन्हीं के साथ चले जाते, क्यों आये यहां ?’’
‘सॉरी सॉरी, चल तुझे डबल संडे आइसक्रीम खिलाता हूं, गुस्सा ठंडा हो जाएगा।’’हाथ पकड़ कर घसीटता सा आइसक्रीम पॉर्लर की ओर चल पड़ा।
जय और तान्या आइसक्रीम खाते खाते नीचे की तरफ़ उतरने लगे। दोनों के परिवारों में गहरी दोस्ती है। एक ही ऑफिस में, एक ही बैच के हैं उनके पिता और मां भी गहरी दोस्त हैं। दोनों परिवार चाहते हैं। कि यह दोस्ती रिश्ते में बदल जाये, बचपन में साथ खेल-कूद कर दोनों बड़े हुए हैं, एक ही स्कूल-कॉलेज में पढ़े-लिखे हैं दोस्ती भी खूब है पर दिन-रात झगड़ते ज़्यादा हैं, बातें कम करते हैं।
तान्या सोच रही थी कि क्या वह शादी के लिए तैयार हो चुकी है मानसिक रूप से ? क्या जय से वह प्यार करती है, या सिर्फ़ दोस्ती मात्र है यह ? सुना था, प्यार में दुनिया रंगीन लगती है, दिन में भी सपने दिखाई देते हैं, प्रिय को देख दिल धड़कने लगता है, छूते ही करंट सा दौड़ जाता है तन-बदन में। पर जय के साथ...यह कुछ भी उसके साथ नहीं हुआ, पर उसके बिना वह रह नहीं सकती। जब भी दो-चार दिन के लिए बाहर जाता है तो मिस करती है। कुछ अच्छा नहीं लगता, बोर होती हुई घूमती है इधर-उधर...
‘‘पैनी फोर योर थौट्स...क्या सोच रही है इतनी मगन हो कर ?’’
तान्या चौंक कर उठी। विचारों का सूत्र टूट गया। ‘‘अरे, कुछ भी तो नहीं, बस, यूं ही।’’
‘‘सोच तो जनाब कुछ गंभीर ही रही थीं, सारी आइसक्रीम पिघल रही है। अपनी शक्ल देखी है, होंठों से तो टपक ही रही है, ठोढ़ी तक बह आयी है।’’ अपना रूमाल निकाल कर जय ने उसे पोंछ दिया।
जय भी दुविधा में था क्योंकि वह भी जानता था कि उनके माता-पिता क्या चाहते हैं। क्या यह सचमुच प्यार है या दोस्ती ? बार बार वह बहुत दिनों से अपने से ही प्रश्न कर रहा था, उत्तर नहीं दे पा रहा था।
पास से एक युवा जोड़ा हाथ में हाथ डाले इठलाता, फुसफुसाता हुआ उनके पास से गुज़रा। युवती लाल होती जा रही थी, आंखें झुका रखी थीं, युवक उमंग भरी बातें किये चला जा रहा था।
‘‘मन कर रहा है चूम लूं तुम्हें, कितनी भीड़ है यहां, एकांत मिलता ही नहीं।’’
‘‘इतनों के समाने ?’’ युवती खिलखिलाकर हंसती बोली।
वे आगे निकल आये थे। जय को यह बड़ा अजीब सा लगा। उसने तान्या को चूमने की कभी कोशिश नहीं की, मन में आया ही नहीं, ‘तो क्या यह प्यार नहीं है ?’ वह सोचने लगा।
‘‘ओ धरम, देखो, ये रहे दोनों बदमाश,’’ वर्मा बोले। दोनों की पत्नियां ख़ुश हो कर मुस्कराने लगीं।
‘‘चलो घर चलो, खाने का वक़्त हो गया। आइसक्रीम क्यों खायी, कल खांस रहा था तू जय।’’ श्रीमती वर्मा बोलीं।
‘‘चलो आप लोग। धीरे धीरे चलोगे, तुम्हें कैच कर लेंगे। अभी आते हैं, हम एक कैसेट ख़रीदेंगे और एक किताब।’’ यह कहते हुए एक दुकान में घुस गये दोनों।
पंद्रह-बीस लड़कियों का झुंड खिलखिलाता, इठलाता, मचलता पास से गुज़र गया, सैंट की ख़ुशबू और कपड़ों की रंगीनी से वातावरण भर गया। किशोर युवा लड़कियां शायद शिमला से बाहर किसी स्कूल से पिकनिक पर घूमने के प्रोग्राम से आयी प्रतीत होती थीं, ज़ोर ज़ोर से बोल रही थीं, ‘शो ऑफ़’ कर रही थीं, इतना शोरगुल था कि शब्द ठीक से सुनाई नहीं दे रहे थे। पीछे एक लड़कों का ग्रुप उनका पीछा कर रहा था तथा तरह तरह से अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न कर रहा था।
अचानक बादल घिरने लगे, हवा तेज़ होने लगी, भगदड़ सी मच गयी। लोग अपने अपने ठिकाने की ओर लौटने लगे। तान्या का हाथ पकड़ जय भी भागने लगा अपने होटल की तरफ़, पर वर्षा ने उन्हें पकड़ ही लिया। जवानी की मस्ती का ठंडी बारिश क्या बिगाड़ सकती थी, वे हंसते-हांफते बढ़ते चले गये।
पास की बैंच के पास एक अधेड़ दंपती आ खड़ा हुआ। पति बोला, ‘‘चढ़ाई पर चढ़ने से तुम्हारे घुटनों में दर्द हो गया होगा, इसी बेंच पर बैठ जाते हैं।’’
पत्नी बोली, ‘‘हां, दर्द तो हो रहा है, चलो, सुस्ता लेते हैं, मेरी कहते हो, अपनी तरफ़ देखो, कैसी सांस फूल रही है।’’ पत्नी ने प्लास्टिक की टोकरी से दो संतरे निकाले और एक पति को और ख़ुद भी खाने लगी। वह छिलके थैली में डालती जा रही थी। देखा, पति महोदय छिलके सड़क पर फेंक रहे हैं, पत्नी गुस्से से बोली, ‘‘अरे, क्या कर रहे हो, गंदगी फैला रहे हो ? घर तुम्हारी इन्हीं हरकतों से कभी साफ़ नहीं रह पाता।’’ बुड़बुड़ाती हुई उठी, छिलके उठा कर थैली में रखे और कूड़ेदान में फेंक आयी फिर आ कर बैठ गयी।
दोनों कुछ देर चुपचाप बैठे रहे फिर उठ कर चल दिये।
तान्या को जय नहीं दिखाई दिया-घड़ी देख चुपचाप नज़ारे देखने लगी। सामने एक रोमियोनुमा लड़का खड़ा था, इधर-उधर घूम कर पीछे लगी बार पर बैठ गया। बार बार घड़ी देख रहा था, चुइंगम भरा मुंह चलाये जा रहा था।
पास की ख़ाली बेंच पर देखा, नया नया शादीशुदा सरदार-जोड़ा बैठा है। हमीमून पर आये लगते हैं। हाथों में चूड़ा, हथेलियों पर मेहंदी, लाल चमकीला सूट-चुन्नी पहने, गोरी चिट्टी, लंबी सुंदर सरदारनी थी। सरदार नया सूट-टाई लगाये था, लंबा-चौड़ा गुलाबी गोरा रंग। बड़ा ख़ूबसूरत जोड़ा था। सरदार जी बोले, ‘‘अरे, दूर क्यों बैठी है, कोल आ के बैठ, हनीमून पै आये हैं।’’
सरदारनी सरक आयी। फुसफुसाहट भरी बातें, खिलखिलाती हंसी आने लगी। ज़ोर से चूमने की आवाज़ से तान्या चौंक कर उधर देखने लगी। सरदारनी बोली, ‘‘की कर दे ओ जी, सब देख रहे हैं।’’
‘‘अरे देखन दे, मैन्यू ते तैन्नू की, यहां कौन जानदा है हमें !’’ सरदार ने फिर उसे बांहों में बांधने की कोशिश की। वह शरमा कर उठ खड़ी हुई, हार कर सरदार जी भी उठ खड़े हुए। दोनों हाथों में हाथ डाल थियेटर की ढलान पर उतरने लगे।
कुछ देर बाद दो प्रौढ़ महिलाएं वहां पर आ कर बैठ गयीं। एक बोली, ‘‘अकेले आये हो तुम दोनों ?’’
‘‘और कौन बैठा है यहां ? दोनों लड़के और लड़कियां अपने अपने घर परिवार समेत अमेरिका में जा बसे हैं। बस, हम दोनों ही रह गये हैं। आपके साथ कौन आया है ?’’
‘‘हमारे साथ तो पूरा टब्बर है। तीनों लड़के-बहुएं, दोनों बेटी-दामाद, नाती-पोते बड़ी सी कोठी है न ढलान पर, दो महीने के लिए ले ली है। नौकर-आया भी साथ लाये हैं। लड़के-दामाद आते-जाते रहते हैं और सभी साथ हैं।’’
‘‘बड़ी भाग्यवान हो, भरा-पूरा परिवार साथ है, हम तो परिवार कुटुंब हो के भी अकेले रह गये हैं।’’ भीगी सी आवाज़ आयी।
‘‘क्या कह रही हो बहन जी, मेरा परिवार भी तो आपका है, जब चाहो आ जाया करो। आज आप और भाई साहब हमारे साथ ही खाना खाओ।’’
‘‘ठीक है, अकेलेपन से अब ऊब गये हैं, डर लगता है कभी कभी तो।’’
‘‘भगवान की कृपा से सब ठीक हो जाएगा जी, देखो दोनों दोस्त साथ साथ चले आ रहे हैं। चलो, उठो साथ ही खाना खाएंगे।’’ वे भी धीमे धीमे उठ कर चल दीं।
तान्या ने फिर घड़ी देखी, केवल दस मिनट ही बीते थे। रोमियोनुमा लड़का बार-बार घड़ी देख कर बेचैन सा चहलक़दमी करने लगा था, बार बार चर्च वाले रास्ते की ओर देख रहा था। उसे कुछ लड़के दिखाई दिये और वह भागा उनकी तरफ़, ‘‘अबे सालो, ये टाइम है आने का ! आधी पिक्चर तो ख़त्म हो गयी होगी।’’
‘‘भाव मत खा, अभी एड्स हो रहे होंगे, चल भाग के चल।’’ और वे लड़ते-झगड़ते हँसी ठट्ठा मस्ती करते चल दिये भागते से।
‘‘क्या टैम हुआ है बहन जी ?’’ एक हलकी सी आवाज़ पास से आयी।
‘‘बारह बजे हैं,’’ घड़ी देख कर तान्या बोली।
‘‘अरी तू घर चली जा, छोरे का बदन तप रहा है, कल की तरह आज भी कमाई ठीक न हो रही।’’
‘‘तुम चले जाओ या के संग, रात भर खांस खांस कर हलकान रहे हो, दोउन कौ आराम मिल जाएगो।’’
‘‘और तू अकेली बैठेगी यहां ?’’
‘‘दो-तीन घंटा बाद मैं भी चली आऊंगी, सबेरे की रोटी रखी है, खा लेना।’’
‘‘और तू का खाएगी ?’’
‘‘मोय अभी भूख ना लगी, कलेवा ख़ूब डट कें कर लियो हो।’’
‘‘चल लल्ला, चलें।’’
बच्चे को गोद में लिये वह खांसता धीमे क़दम से चल दिया। वह निरीह सा भाव लिये और मूंगफली लिये बैठी रही।
‘‘मुझे मालूम था, ज़रूर देर करेगा, मैं ही पागल हूं, जो इंतज़ार कर रही हूं।’’ धीरे धीरे तान्या बड़बड़ायी।
‘‘क्या बड़बड़ा रही है पगली ?’’ जय पीछे से बोला।
तान्या चौंक कर उठ खड़ी हुई। ‘‘क्या बदमाशी है, अब बजे हैं आपके 10:30 ? अब तेरा कभी विश्वास नहीं करूँगी, श्रीति के साथ घूमा करूंगी।’’
‘‘क्या करूं, गोपू और निन्नी मिल गये, सिर खा गये दोनों। बातें ख़त्म ही नहीं हो रही थीं। पैप्सी पीते रहे और दुनिया जहान की बातें करते रहे।’’
‘‘तुम कह नहीं सकते थे कि तान्या इंतज़ार कर रही है, चलते चलते बातें करते हैं ?’’
‘‘कहा था, पर वे लोग दूसरी तरफ़ जाने वाले थे।’’
‘‘ठीक है, उन्हीं के साथ चले जाते, क्यों आये यहां ?’’
‘सॉरी सॉरी, चल तुझे डबल संडे आइसक्रीम खिलाता हूं, गुस्सा ठंडा हो जाएगा।’’हाथ पकड़ कर घसीटता सा आइसक्रीम पॉर्लर की ओर चल पड़ा।
जय और तान्या आइसक्रीम खाते खाते नीचे की तरफ़ उतरने लगे। दोनों के परिवारों में गहरी दोस्ती है। एक ही ऑफिस में, एक ही बैच के हैं उनके पिता और मां भी गहरी दोस्त हैं। दोनों परिवार चाहते हैं। कि यह दोस्ती रिश्ते में बदल जाये, बचपन में साथ खेल-कूद कर दोनों बड़े हुए हैं, एक ही स्कूल-कॉलेज में पढ़े-लिखे हैं दोस्ती भी खूब है पर दिन-रात झगड़ते ज़्यादा हैं, बातें कम करते हैं।
तान्या सोच रही थी कि क्या वह शादी के लिए तैयार हो चुकी है मानसिक रूप से ? क्या जय से वह प्यार करती है, या सिर्फ़ दोस्ती मात्र है यह ? सुना था, प्यार में दुनिया रंगीन लगती है, दिन में भी सपने दिखाई देते हैं, प्रिय को देख दिल धड़कने लगता है, छूते ही करंट सा दौड़ जाता है तन-बदन में। पर जय के साथ...यह कुछ भी उसके साथ नहीं हुआ, पर उसके बिना वह रह नहीं सकती। जब भी दो-चार दिन के लिए बाहर जाता है तो मिस करती है। कुछ अच्छा नहीं लगता, बोर होती हुई घूमती है इधर-उधर...
‘‘पैनी फोर योर थौट्स...क्या सोच रही है इतनी मगन हो कर ?’’
तान्या चौंक कर उठी। विचारों का सूत्र टूट गया। ‘‘अरे, कुछ भी तो नहीं, बस, यूं ही।’’
‘‘सोच तो जनाब कुछ गंभीर ही रही थीं, सारी आइसक्रीम पिघल रही है। अपनी शक्ल देखी है, होंठों से तो टपक ही रही है, ठोढ़ी तक बह आयी है।’’ अपना रूमाल निकाल कर जय ने उसे पोंछ दिया।
जय भी दुविधा में था क्योंकि वह भी जानता था कि उनके माता-पिता क्या चाहते हैं। क्या यह सचमुच प्यार है या दोस्ती ? बार बार वह बहुत दिनों से अपने से ही प्रश्न कर रहा था, उत्तर नहीं दे पा रहा था।
पास से एक युवा जोड़ा हाथ में हाथ डाले इठलाता, फुसफुसाता हुआ उनके पास से गुज़रा। युवती लाल होती जा रही थी, आंखें झुका रखी थीं, युवक उमंग भरी बातें किये चला जा रहा था।
‘‘मन कर रहा है चूम लूं तुम्हें, कितनी भीड़ है यहां, एकांत मिलता ही नहीं।’’
‘‘इतनों के समाने ?’’ युवती खिलखिलाकर हंसती बोली।
वे आगे निकल आये थे। जय को यह बड़ा अजीब सा लगा। उसने तान्या को चूमने की कभी कोशिश नहीं की, मन में आया ही नहीं, ‘तो क्या यह प्यार नहीं है ?’ वह सोचने लगा।
‘‘ओ धरम, देखो, ये रहे दोनों बदमाश,’’ वर्मा बोले। दोनों की पत्नियां ख़ुश हो कर मुस्कराने लगीं।
‘‘चलो घर चलो, खाने का वक़्त हो गया। आइसक्रीम क्यों खायी, कल खांस रहा था तू जय।’’ श्रीमती वर्मा बोलीं।
‘‘चलो आप लोग। धीरे धीरे चलोगे, तुम्हें कैच कर लेंगे। अभी आते हैं, हम एक कैसेट ख़रीदेंगे और एक किताब।’’ यह कहते हुए एक दुकान में घुस गये दोनों।
पंद्रह-बीस लड़कियों का झुंड खिलखिलाता, इठलाता, मचलता पास से गुज़र गया, सैंट की ख़ुशबू और कपड़ों की रंगीनी से वातावरण भर गया। किशोर युवा लड़कियां शायद शिमला से बाहर किसी स्कूल से पिकनिक पर घूमने के प्रोग्राम से आयी प्रतीत होती थीं, ज़ोर ज़ोर से बोल रही थीं, ‘शो ऑफ़’ कर रही थीं, इतना शोरगुल था कि शब्द ठीक से सुनाई नहीं दे रहे थे। पीछे एक लड़कों का ग्रुप उनका पीछा कर रहा था तथा तरह तरह से अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न कर रहा था।
अचानक बादल घिरने लगे, हवा तेज़ होने लगी, भगदड़ सी मच गयी। लोग अपने अपने ठिकाने की ओर लौटने लगे। तान्या का हाथ पकड़ जय भी भागने लगा अपने होटल की तरफ़, पर वर्षा ने उन्हें पकड़ ही लिया। जवानी की मस्ती का ठंडी बारिश क्या बिगाड़ सकती थी, वे हंसते-हांफते बढ़ते चले गये।
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